Founder's Message

Mr. A.S. Raghuvanshi
उतिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत!
यह सूक्ति कितनी भावनाओं की भामिनी है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं। यदि हम वर्तमान परिस्थितियों का सिंहावलोकन करें, तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक ऐसे तिमिराच्छन्न वातावरण से आच्छादित हैं, जहाँ सबकुछ होते हुए भी एक शून्यता अनुभव होती है।
‘गीता’ का यह उपदेश सदैव प्रेरणा प्रदान करता है—
“कर्मण्येवाधिकारेस्ते मा फलेषु कदाचन।”
अर्थात, “कर्म करो, परंतु फल की इच्छा मत करो।” परंतु यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है—कर्म की दिशा और उद्देश्य क्या हो? यदि कर्म दिशाहीन और लक्ष्यहीन हो, तो उसकी सार्थकता क्या? श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को निश्चित कर्म—युद्ध—के लिए प्रेरित किया था और साथ ही उसे मार्गदर्शन, साधन एवं यथोचित उपाय भी प्रदान किए थे।
आज, इस कर्म की साधना की वीणा को अपने ज्ञान की मधुरतम ध्वनि से समस्त प्रतियोगियों तक पहुँचाने का दृढ़ संकल्प मैंने भी लिया है। इस कर्तव्य-निर्वाह में मुझे आशातीत सफलता भी प्राप्त हो रही है। हमारे विद्यार्थियों एवं अभिभावकों ने हमें अपने “मानस आश्रय स्थली” में जो स्थान प्रदान किया है, उसने मेरे अंतःकरण को और भी समृद्ध कर दिया है।
हम अपने शाश्वत एवं सात्विक संकल्प के साथ आपको ज्ञान-सागर में स्नान कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसी कारण यह अविराम श्रंखला गतिमान है।
अक्सर हमने देखा है कि प्रतियोगियों में निराशा और हताशा की भावना उत्पन्न हो जाती है, जिससे उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। वे स्वयं को अयोग्य मानने लगते हैं और यह सोचने लगते हैं कि उनके भीतर प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करने की क्षमता नहीं है। लेकिन यह केवल एक मृग-तृष्णा है!
“प्रतिभा हर व्यक्ति के भीतर होती है, परंतु वह हीनता और आलस्य से ढकी होती है।”
गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है—
“अतिसय रगड़ करै जो कोई। अनल प्रकट चंदन ते होई।”
अर्थात, जिस प्रकार चंदन पर घर्षण करने से अग्नि प्रकट होती है, उसी प्रकार सही मार्गदर्शन और सतत प्रयास से प्रतिभा भी प्रकाशित हो उठती है।
प्रतिभा वह शक्ति है, जो कठिन परिश्रम और निरंतर अभ्यास से विकसित होती है। विश्व को अनेक महान आविष्कार देने वाले वैज्ञानिक थॉमस एडीसन ने भी अनगिनत प्रयासों के बाद सफलता प्राप्त की थी।
इसलिए, अपने भीतर की अपार संभावनाओं को पहचानिए, जागरूक बनिए और अपने लक्ष्य की ओर पूरे आत्मविश्वास से अग्रसर होइए!